जया एकादशी व्रत कथा (माघ-शुक्ल पक्ष)
माघ महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी व्रत रखा जाता है
इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और जया एकादशी व्रत कथा को सुनते हैं | इस व्रत कथा के सुनने से व्रत का पूर्ण फल प्राप्त होता है, इस व्रत के महत्व का पता चलता है और इसके पुण्य फल से नीच योनि से मुक्ति मिलती है, मृत्यु के बाद मोक्ष मिलता है
जया एकादशी व्रत कथा (माघ-शुक्ल पक्ष)
एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी व्रत की महत्ता के बारे में बताने का निवेदन किया | तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें जया एकादशी व्रत की कथा सुनाई |
एक समय की बात है नंदन वन में उत्सव हो रहा था, जिसमें देवी-देवता, संत आदि उपस्थित थे | उत्सव में संगीत एवं नृत्य भी हो रहा था |
गंधर्व माल्यवान एवं पुष्यवती भी नृत्य कर रहे थे | दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए और सभी की उपस्थिति में इस प्रकार से नृत्य करने लगे कि वे मार्यादाएं भूल गए |
उनके इस व्यवहार से इंद्र देव कुपित हो गए और उन्होंने दोनों को स्वर्ग लोक से निष्कासित करके मृत्यु लोक यानी पृथ्वी पर निवास करने का श्राप दे दिया| श्राप के कारण पुष्यवती एवं माल्यवान को पिशाच योनि में जीवन प्राप्त हुआ|
वे दोनों हिमालय पर एक वृक्ष पर अपना आश्रय लिए थे | उनकी जीवन बड़ा ही कष्टमय था| उस वर्ष माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी को उन दोनों ने भोजन नहीं किया, फलाहार किया. सर्दी के कारण नींद नहीं आई, तो उन दोनों ने रात्रि जागरण किया | भयंकर सर्दी के कारण उन दोनों की मृत्यु हो गई |
पुष्यवती एवं माल्यवान ने अनजाने में ही जया एकादशी व्रत कर लिया था | भगवान विष्णु की दृष्टि उन दोनों पर पड़ी, तो उन्होंने प्रेत योनि से दोनों को मुक्ति प्रदान कर दी| जया एकादशी व्रत के प्रभाव से दोनों पहले से भी अधिक रूपवान हो गए और फिर से स्वर्ग लोक पहुंच गए |
पुष्यवती एवं माल्यवान को देखकर इंद्रदेव हैरान रह गए| तब उन दोनों ने देवराज इंद्र से जया एकादशी व्रत के महत्व और भगवान विष्णु की महिमा के बारे में बताया | यह जानकर इंद्रदेव भी खुश हो गए और दोनों को फिर से स्वर्ग लोक में रहने के लिए अपनी अनुमति दे दिए |
इस प्रकार से जो भी जया एकादशी व्रत रखता है, ईश्वर की कृपा से’ उसे नीच योनि से मुक्ति मिलती है और उसके दुखों का नाश होता है |
स्तोत्रम्
कथाएँ
आरती
चालीसा
एकादशी व्रत कथा
अष्टकम्
महर्षि दधीचि का सबसे महान त्याग